01 June 2007

दिन-रात

दीवारों से इतने घिर गए हैं हम
कि पता ही नहीं चलता
सूरज कब आया
चांद कब गया,
आकाश की लालिमा क्या होती हैं।
बस तपती हुयी धूप को
समझा हैं हमने
दिन,
और चमचमाती बत्तियों के उजाले को
रात...

5 comments:

अभिनव said...

सटीक रचना है।

Rachna Singh said...

really nice adn very realistic

सुनीता शानू said...

बिल्कुल सही फ़रमाया है आपने...

सुनीता(शानू)

डाॅ रामजी गिरि said...

य़तीश जी, शब्दों और भावनाओं के कुशल चितेरे हैं आप.........पर मेरा कहना है कि मेट्रो से बाहर कस्बों और गावों मे अभी भी दिवारें इतनी ऊंची नहीं हैं.सूरज, धूप, चॉद-तारे, चॉदनी सब कुछ है वहॉ.या तो देखने वाले नहीं हैं , या फ़िर फ़ासले में धुंध छायी हुई है.
-Dr.R Giri

S said...

Kya baat hai.Bohot khub.Maine aapke lagbhag sabhi blogs padhe hai.Per mai yeh nahi samajh paa raha hoon ki Hindi main kaise type kiya jaa sakta hai?Mere Blogger me to aisi koi suvidha nahi dikhati.Kripaya batayeen.BTW, all the best and keep it up.