16 August 2007

इन डिपेन्डेन्ट डे

चाँदनी चौक से
बरेली का मांझा और
पतंग मगाई थी,
सोचा था
शाम तक घर
पहुच ही जाऊंगा।

मेरे से कभी
पतंग नही उड़ी।
पतंग हवा के
रुख के साथ
उड़ती हैं
और मैंने कभी
इसके रुख के साथ
रुख नही मिलाया
अलग ही चला।

सोचा था
आज
हवा के साथ उडूगा,
पर ये ना हो सका ।
आज सारे दिन
ख़बरों पे झंडा फहराया,
आज के दिन
बाक़ी दिनों से ज्यादा
काम आया।
जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।

5 comments:

Anonymous said...

DIL UDAS KYON KARTE HO aur Apna Mun Ki Maarte Ho

Aaj kal Logon ko multi colour DIYE VAALI Patang Raat ko udaane mein bada maja aata hai.

Next time try this option. Small KIDS like watching night kites also.

Good work continue...

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया रचना है,ऐसा कई बार होता है-

जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।

Reetesh Gupta said...

बहुत अच्छा ...बधाई

Sharma ,Amit said...

कुछ अपनी सी ही बात कह दी आप ने, कुछ अन्दर तक जो छु गई !

Shashi Kant said...

"जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।"
sari kavita ka sar uppar likhi lines me chupa hua hai