चाँदनी चौक से
बरेली का मांझा और
पतंग मगाई थी,
सोचा था
शाम तक घर
पहुच ही जाऊंगा।
मेरे से कभी
पतंग नही उड़ी।
पतंग हवा के
रुख के साथ
उड़ती हैं
और मैंने कभी
इसके रुख के साथ
रुख नही मिलाया
अलग ही चला।
सोचा था
आज
हवा के साथ उडूगा,
पर ये ना हो सका ।
आज सारे दिन
ख़बरों पे झंडा फहराया,
आज के दिन
बाक़ी दिनों से ज्यादा
काम आया।
जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।
5 comments:
DIL UDAS KYON KARTE HO aur Apna Mun Ki Maarte Ho
Aaj kal Logon ko multi colour DIYE VAALI Patang Raat ko udaane mein bada maja aata hai.
Next time try this option. Small KIDS like watching night kites also.
Good work continue...
बढिया रचना है,ऐसा कई बार होता है-
जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।
बहुत अच्छा ...बधाई
कुछ अपनी सी ही बात कह दी आप ने, कुछ अन्दर तक जो छु गई !
"जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।"
sari kavita ka sar uppar likhi lines me chupa hua hai
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