एक दिन गमले मे अन्कुर फूटा
एक दिन माली उससे रुठा
क्यो...
रोज़ मिला उसे सूरज पानी
की शुरु उसने फिर जडे फैलानी
पहले नन्हा पौधा बना
असमन्जसता मे फिर वह तना,
शाख और पत्ते हुये घने
गमले मे पैर अब ना बने
उसका उसपे कोई जोर ना था
प्रक्रिती का नियम भी यही था
उसको जो थी जगह चाहिये
माली ने उसे नही दिलाई
गमले वाले पौधो की उसने
क्यारी मे थी लाइन लगाई
गमले मे फिर फूल खिले
फल आये और शाख झुके
माली ने फलो को बेचा
और क्यारी के फूलो को सीचा
माली ने फिर भी कुछ ना सोचा
गमले की चटकन को किया अनदेखा
वक्त ने अपना खेला खेला
गमले से जडो को बाहर ढकेला
उसने अपनी खुद जगह बनाई
सब लोगो को दी फिर छाई
अब माली की सुनो दुहाई
जो पाले उसी का कर दो नाश
5 comments:
जहाँ अन्त आता है नवजीवन वहीं होता है
माली को कोइ शिकायत नही होनी चहीए
बहुत सुन्दर ! माली की तुलना माता पिता से व पौधे कि बच्चे से की जा सकती है । माता पिता उसे बाँधकर अपने अन्तर्गत रखना चाहते हैं और युवा बन्धन तोड़ अपने पँख फैला अपना एक नया संसार रचना चाहते हैं । वाह !
घुघूती बासूती
माली ने अपने कर्तव्य पूर्ण किया और पौंधों को अपने कर्तव्य करने होंगे. माली का भी अधिकार है कि वो फलों को आनन्द उठाये, उसने ही इस लायक बनाया कि पौधा अपनी जड़ों को विस्तार दे पाये.
अच्छी विचारणीय प्रस्तुति.
अच्छी कविता है।
तस्वीर का दूसरा पहलू! बेहतरीन!
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