कल आज पर निर्भर हैं
और बीते हुये कल पर आज,
जिन्दगी का उसूल हैं।
पर जिस रस्ते से
होता हुआ ये जाता हैं
वहां एक डोर
जिसे रिश्ते कहते हैं
बांधे रहती हैं।
हम इन्हें
सींचते तो ज़रुर हैं
पर इनका
पक्का पन-कच्चा पन
हमारे हाथ
नहीं होता।
पर इन सबके साथ
कुछ रिश्ते
ऐसे होते हैं
अद्रश्य से,
अनबंधे से
जो देते हैं जीं को सुकून,
देते हैं अपना पन।
क्यों ना हम
अपनी सोच की
उस रेखा को मिटा दें
जो खिचती हैं
हरदम मन पर,
क्यों ना हम
उन हवाओं से ही
खुश होलें
जो देती हैं
अपने होने की ठंडक।
क्या हुआ कि वो
सामने नहीं हैं,
पर हम तो हो सकते हैं
सामने उसके हरदम
कुछ खुले हुये रिश्ते
बहुत बांधते हैं मन को...
No comments:
Post a Comment