कभी अजनबी सी,
कभी जानी पहचानी सी,
जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा...
28 July 2007
आहट
मै कल यू ही निकल पड़ा अपने कदमो को छोड़ कि आहट ना हो, सन्नाटा था... कोई पास से भी गुज़रा मेरे, पता भी ना चला, शायद वही होगा जिसे मै ढूडने चला था। शायद वो भी अपने कदम छोड़ आया होगा...
5 comments:
बहुत बढिया रचना है।
शायद!!
बहुत खूब, यतीश भाई. बने रहिये. बधाई.
बहुत खूब!!
क्या बात है हर बात में एक गहरी बात्…
"अपने कदम छोड़ आया होगा"...
शानू
बहुत खुबसुरत सर ।
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