04 August 2007

पुरानी किताबें

घर में कई किताबें
अपने बिछड़ो से
मिलने को तरस रहीं थी,
कुछ दिन पहले ही
एक एनाय्क्लोपीदीया
मुझसे कह रहा था
कहॉ छोड़ आये हो
मेरा एक हिस्सा,
जब तुम लाए थे मुझे
अपने घर,
तो कहा था
अगली बार
पूरा कर दूंगा तुम्हें ।
आज एक दशक से
ज्यादा हो गया।

कल किसी बहाने में गया था
उन रास्तों पे,
नये ज़माने की चमक से
चमक रही थी सारी चीजें,
बसों की भीड़ अब
मेट्रो में चलती हैं,
सेंट्रल पार्क को चिड़ाता
एक और पार्क बन गया हैं
और वो फेरी वाले
ना जाने कहॉ गुम हो गए,
जो सजाते थे
पुरानी सोहबतें।
जो बेचते थे
पुरानी किताबें...

6 comments:

Divine India said...

बहुत सांकेतिक!!!
सुंदर रचना…।

विपुल जैन said...

सुंदर अच्छा लगा, बहुत सुंदर|

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत सुंदर रचना. नया रंग रुप चिट्ठे का बढ़िया है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यही सब न झंझट है. अब पढने-लिखने का काम तो कम्प्यूटर पर हो जाता है! और फेरी वालों को सरकार ने तय कर लिया है कि जीने नहीं देगी.

अजित वडनेरकर said...

पसन्द आयी रचना। ब्लोग का डिज़ाईन भी बहुत खूब है।

Anonymous said...

बहुत सुंदर!