06 August 2007

हमाम में सब नंगे हैं

क्यों कीचड़ उछालते हैं
एक दूसरे पे हम,
क्या कभी देखा हैं
हमाम में सब नंगे हैं।

कृपया यहाँ ज़रुर देखें
मै भी नहा रहा हूँ वहां हमाम में ...
हों सके तो अपनी अमूल्य राय दें.

लोगों को इसकी सख्त ज़रूरत हैं

3 comments:

Rachna Singh said...

http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2007/08/blog-post_06.html
जो स्याही की सहायता से जीता है
दूसरो पर कालिख उडेलता है
अग्रेजी की कतरनों को
हिंदी का जामा
पहनता है
यहाँ वहाँ से फोटो
उठाता है
मौलिकता के नाम पर
अपने लिखे पर चिपकाता है
शिक्षक हों कर
गुरू की गरिमा को
भूल जाता है
जहाँ मतभेद ना हों
भाषा से मतभेद लाता है
अपनी गलती को ना
स्वीकार कर सब पर
शक करना ओर
किसी के भी नाम
के सहारे
अपने
फटे पुराने
लेखो पर
अपनो से चर्चा
करवा कर
स्याही की सहायता से जीता
जाता है
तभी तो अपनी बिना नाम की
शख्सियत को
मसिजीवी
वह बताता है

Shastri JC Philip said...

कविता बहुत हृस्व हो गई. खुले हमाम में (समुद्र किनारे) नहाते लोगों के कपडों के समान. कम से कम हम सब को अपनी सटीक विश्लेषण की 8 से 10 पंक्ति जरूर प्रदान करें -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

Divine India said...

आप की सोंच खरी है और बेबाकी भी…
वाकई हम सभी हमाम में नंगे ही होते है…
अगर कविता को और बढ़ाया जा सके तो
कृप्या जरुर ऐसा करें हमें और भी कुछ जानने को मिलेगा…।