08 August 2007

रसोई प्रेम की

सुना था
टैगोर के गीतों से
प्रेम झलकता था,
अभी कुछ दिन हुये
दूरदर्शन पे सूना भी,
गीत तो आज भी
वही हैं,
पर सुनाने वालों के
कान बदल गए हैं,
आज कल के कौतुहल से
सुर
अन्दर नही जा पाते।
और फिर
री-मिक्स का जमाना
जो आ गया हैं।

पाश्च्यत संगीत का मिश्रण
हमारे प्रेम संगीत में
कुछ एसा मिला
कि टैगौर की
टै हो गयी.
संगीत का तो पता नही,
सुरों में संगीन
खीच आयी हैं।
भावनायें नावों में
पलायन करगयी हैं,
शब्दों में प्यार नही
प्याज कटता हैं।

यही हैं आज
रसोई प्रेम की
जो अब रोज़ पकती हैं
क़तरा-क़तरा...

1 comment:

Shastri JC Philip said...

सच है, रसोई प्रेम की होनी चाहिये, लेकिन हर प्रेम की नहीं. (कविता की लंबाई अब ठीक होने लगी है!) -- शास्त्री जे सी फिलिप

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