11 August 2007

खोमचा






















सरहाने
अपने
खोमचा किताबों का
सजा लिया हैं हमने,
पहले
वक़्त ही नही मिलता था
अलमारी तक जाने का,
उनका हालचाल जानने का।
इस तंग जिन्दगी में
मसरूफ होकर भी
तन्हा हो गए हैं,
इसलिये
हाथ भर की दूरी पर
बुला लिया हैं उनको।
अब दुआ की तरह
पढता हूँ,
दवा की तरह
लिखता हूँ रोज़
क़तरा-क़तरा...

4 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही!!

Udan Tashtari said...

वाह!! लिखते रहें कतरा कतरा.

Anonymous said...

hi yatish
really liked this poem of yours... especially the line of "dawa ki tarah likhta hoon qatra qatra" ....... very beautiful.....
hazaron saal jiyo, raje
aur patparganj ki taraf aa rahe ho to please have lunch with me. shudh saatvik is totally possible, so you please dont worry about the food.
best wishes
nicholas

Shastri JC Philip said...

यह मेरा अनुभव है. आप को किसने यह बात बता दी -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है