20 August 2007

पदचाप

सब को
साथ ले चलने की
कोशिश करता था,
सबके साथ चलने की
कोशिश करता था।

उम्र के इस मध्यांतर मे,
थोड़ा रुका;
तो देखा
कोई साथ नही था।

आज अकेला चला;
अकेला ही जान कर
अपने आप को।
पर ये क्या हुआ
ना कोई साया था
ना थी कोई पदचाप...

6 comments:

Rajatjsr said...

Good Thought Bhaiya. But let me remind you that you are not alone I am always with you.

Regards,
Rajat

सुनीता शानू said...

यतिश जी आज मन कुछ अशांत है इसलीये किसी को टिप्पणी नही दे पाई हूँ आपके सिवा... यह कविता आज न जाने कुछ मुझे अपनी सी लग रही है...
सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

क्या हुआ भाई. आज बड़े खोये खोये से तन्हा तन्हा टाईप बात कर रहे हैं.

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर मन को छूने वाली कविता है ।
घुघूती बासूती

Reetesh Gupta said...

आप की कविता ने ह्रदय को स्पर्श किया है...बधाई

मीनाक्षी said...

उम्र के इस मध्यांतर मे,
थोड़ा रुका;
तो देखा
कोई साथ नही था।
सत्य है. कभी कभी ऐसा अनुभव होता है ....
तो मन कह उठता है....
"अकेला ही चलना होगा जीवन-पथ पर
अकेला ही बढ़ना होगा मृत्यु-पथ पर
निराश न हो मन ।" अपनी लिखी पुरानी कविता के साथ साथ बहुत कुछ याद दिला दिया.