31 August 2007

शांती

शांती ढूढता हैं हर कोई
हर समाज, मज़हब, देश
ये सारी कायनात,
बंधे हुये हैं
स्वतंत्र नही कर पाते
अपने आप को।

हम सब बटे हुये हैं
ज़मीन के
किसी टुकडे की तरह
और ज़मीन की छाती
छलनी हैं
लकीरों से।
कोई भी लकीर हिलती हैं
तो संगीने खिच जाती हैं
आतिशबाजियां होती हैं
अशान्ती और बड़ जाती हैं।

कहाँ मिलेगी शांती
पता नही,
पता हैं तो बस इतना,
अपने आप में हैं ये,
और इसे ढूढ़ना हैं मुश्किल।

ये जितनी पास आती हैं हमारे
हम उतना दूर होते जाते हैं
रोज़ इससे
क़तरा-क़तरा

7 comments:

Anonymous said...

यतीश,

शान्ति हर इंसान के भीतर ही है
वोह उसे बिना वजह बाहर खोज रहा है
उसके लिए भीतर नजर फिरा कर
साधना की आवश्यकता है

और बिना अभ्य्यास के साधना नहीं होती
अगर आप शान्ति को खोज में निकले हैं
तो बाहर धक्के ही खायेंगे
जरा भीतर दूब्की लगाने की जरुरत है

उमेश बत्रा

Anonymous said...

अगर आप को शांती नही मिलती तो थानें मे रिपोर्ट लिखवाओ:(

Anonymous said...

Aaj hamein pata chala ke Tumhari Us ka naam Shanti Hai...

Gumshuda ki talash mein...

परमजीत सिहँ बाली said...

बिल्कुल सही...जब हम संसार से ऊबनें लगते हैं ..तो हमें शाती की तलाश..मे निकलना ही पडता है...और यह प्रश्न सामने ख्द़्आ हो जाता है-

कहाँ मिलेगी शांती
पता नही,
पता हैं तो बस इतना,
अपने आप में हैं ये,
और इसे ढूढ़ना हैं मुश्किल।

ghughutibasuti said...

कविता अच्छी लगी ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

बढ़िया है. सारा जग इसी तलाश में है. अच्छा शब्दों में बाँधा है.

Anonymous said...

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