09 September 2007

साजिश

रात का सपना
जब ख़त्म हो रहा था
तो सूरज ने एक साजिश की
एक किरण को भेज दिया
आखरी पहर ही देहलीज पे
रात भी बड़ी चालक
उसने न खोले अपने द्वार
सपना संजोये ही चली गयी
थाम लिया वक़्त को
अपनी बंद आखों मे
जब आँख खुली
तो चौधिया गयी
सब कुछ उजड़ चुका था
सिर्फ़ कहने को
एक नाम बाकी था
दिन के सीने पे
जल रहा था
रात की राख लिए.

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5 comments:

Sajeev said...

सुंदर सा सपना रहा होगा ......

परमजीत सिहँ बाली said...

सिर्फ़ कहने को
एक नाम बाकी था
दिन के सीने पे
जल रहा था
रात की राख लिए.

बहुत बढिया!

Anonymous said...

सपने
पुरे हो जायें तो अपने
नहीं तो सपने

Monika (Manya) said...

सपने तो बस सपने होते हैं........

SURJEET said...

Dream sweet dream! The last stanza of this poem is amazing. Now I don't think I am left with words to appreciate you Mr. Jain.