22 November 2007

क़तरा-क़तरा अब अपने घर में

दोस्तो क़तरा अब अपने घर मे पहुच गया है और इसका नया नाम
Qatra-Qatra.yatishjain.com/ है,
आपके सुझाव, टिप्पणिया हमेशा मेरे लिए प्रेरणा श्रोत रही है आशा है आगे भी आप मुझे हौसला देते रहेंगे.
आभार

09 November 2007

11 September 2007

मरहम

रोज़ होती है दर्द की नुमाइश
तकनीक के इस बेमिशाल डब्बे में,
कुछ भी हो
ख़बर का जामा पहना देते है
हम उसे,
अलग अलग दुकाने सजी है
पर सामान एक ही है,
वही लूप मे घूमती घटनाये
वही होड़ मे उछलती सूचानाये.

रिश्ते और घर का
कोना-कोना बे परदा हो गया है
इस TRP के चक्कर में
पर वो है कि मिलाती ही नही.

कोई करता है हकीकत की बात,
कोई सच की
कोई सबसे तेज़ है,
तो कोई बदलना चाहता है
तस्वीर देश की.

सब है पढे लिखे
ओहदे वाले
नज़र रखते है हर चीज़ पर
ऊपर से.

किसी गुरू ने कहा था
कि बेटा हर ईमारत की मजबूती
उसकी नींव मे होती है.
आज सोचता हूँ कि
इस देश की नींव मे क्या है
अगर आम जनता
तो ये डिब्बा वो क्यों नही दिखाता
कुन करता है नुमाइश
सरे आम हर दर्द की

कुछ मरहम दे
तो सुकू मिले सबको...

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: कविता, रोज़, नुमाइश, ख़बर, रिश्ते, घर, हकीकत, सच, देश, नज़र, नीव, दर्द, मरहम, सुकू, yatish, yatishjain, यतीष, hindi, poem, क़तरा-क़तरा, Qatra-Qatra,

10 September 2007

शब्दकार

शब्द गीत बनके बोल को अमर करते है
शब्द बोल बनके आवाज़ को अमर करते है,
शब्द बस जाते है दिलों मे धुन बनके.

आवाज़ शब्दों से ही जानी जाती है
शब्द गड़ने वाले खो जाते है
जैसे आवाज़ गुमनाम सी,
बोल बेमानी से,
धुन अनजान सी.

शब्दों का कोई काम्पटीसन नही होता
आवाजों का होता है प्रदर्शन
शब्द आत्मा है
शब्द नींव है
शब्द ही सहारा देते है
आवाज़ की दुनिया को

पर
आवाज़ क्या देती है
शब्दों को
शब्दकार को...

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: कविता, शब्द, आवाज़, नींव, आत्मा, धुन, गुमनाम, yatish, yatishjain, यतीष, hindi, poem, क़तरा-क़तरा, Qatra-Qatra,

09 September 2007

साजिश

रात का सपना
जब ख़त्म हो रहा था
तो सूरज ने एक साजिश की
एक किरण को भेज दिया
आखरी पहर ही देहलीज पे
रात भी बड़ी चालक
उसने न खोले अपने द्वार
सपना संजोये ही चली गयी
थाम लिया वक़्त को
अपनी बंद आखों मे
जब आँख खुली
तो चौधिया गयी
सब कुछ उजड़ चुका था
सिर्फ़ कहने को
एक नाम बाकी था
दिन के सीने पे
जल रहा था
रात की राख लिए.

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: कविता, रात, सपना, वक़्त, नाम, राख, देहलीज, आँख, साजिश, सूरज, किरण, yatish, yatishjain, यतीष, hindi, poem, क़तरा-क़तरा, Qatra-Qatra,

08 September 2007

सपना हो गया सपना

अर्से पहले
एक सपना देखा था
आज वो पूरा हुआ
पर
वो सपना अपना नही रहा,
जब हक़ीकत ने उसे छुआ
तो मुआ मुझे ही छोड गया

आज जब खुलती हैं
शम्पैन उसकी हर कामयाबी पे
थोडा दर्द देती हैं
पर खुश भी बहुत
हो लेता हूँ ये देख कि
जो बीज बोया था
वो आज कितनों को
छाया दे रहा

जो आग सुलगाई थी
सर्द रातों में
आज सेकती हैं कईयों को
पर ठिठुरता रहता हूँ मै ,
अकेला घूमता हूँ
इस भरी भीड़ में,
तनहाइयां समेटता हूँ
इस शोर में.

साथ चलना सबके
दूभर हो चला हैं
विश्वाश का साथ अब
दूर हो चला हैं

मै मेरे साथ रहूँ
अब यही दुआ करता हूँ
क्यों कि
मुझमें मै हूँ
तो मै हुआ करता हूँ

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: कविता, अकेला, मै, साथ, विश्वाश, दुआ, ख़ुशी, दर्द, तनहा, अकेला, भीड़, yatish, yatishjain, hindi, hindi-poem, क़तरा-क़तरा, Qatra-Qatra,

06 September 2007

हां एकलव्य आज भी पैदा होते है

द्रौण ने अर्जुन को बनाया, अर्जुन ने द्रौण को,
गुरू ने शिक्षा दी और मिशाल बनाई,
की गुरू तभी गुरू होता है
जब शिष्य उससे आगे निकल जाये,
कुछ उससे बड़ा कर दिखाये.
पर आज
कहाँ है ऐसे द्रौण
कहाँ है ऐसे अर्जुन
कहाँ है ऎसी कोख
जिनसे ये पैदा हो सके.
शिक्षा अब बाज़ार मे
बिकने वाली चीज हो गयी है,
काबिलियत
कागज़ पे लगा एक ठप्पा,
गले मे लटकता एक तमगा.
दुकाने सजी है गुरुओ की,
अब शिष्यों की भी.
गुरू अब गुरू नही पेड सर्वेंट हो गया है
शिष्य उसे जब चाहे बदलता है.
शिष्य अब शिष्य नही
भेदो के झुंड है,
जहाँ गुरुओं की संस्थाएं उन्हें चुनती है.
गुरू में गुरूर है अब
शिष्य में क्या शेष है अब
पता नही
शिक्षा अब उस भिक्षा की तरह है
जिसे कोई भी ले दे सकता है
पर इसमे कितनी सुशिक्षा है
सब जानते है.
सब कुछ बदल गया है
पर ये सच है
द्रौण और अर्जुन नही रहे
पर ये भी सच है
आज भी पैदा होते है
ऐसे लोग
जो बनते है अपने बुते पे,
सामने आदर्श का बुत रखके,
हां एकलव्य आज भी पैदा होते है

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05 September 2007

द्वापर के हनुमान "उड़न तश्तरी"

कल जब सपने मे कर रहा था बलोगगीरी
तो पीछे से श्री कृष्ण की आवाज़ आयी धीरी,
मैंने देखा वो खड़े गाना सुन रहे है
एक ब्लॉग की धुन मे कुछ ढूड रहे है
गाना था तुझसे नाराज़ नही ज़िंदगी मैं
ब्लॉग था उडन तश्तरी.
मुझसे बोले क्या कष्ट है इन्हे बच्चा
ये भक्त है मेरा सच्चा
हर दुखियारे के ब्लॉग पर जाता है
सांत्वना की संजीवनी दे आता है.

मैं बोला
लोग इनके पीछे पड़े है
कुछ नही तो फोटो के पीछे अडे है
वे बोले तुम इनका कष्ट दूर करो
इनकी तस्वीर मैं जरा रंग भरो.

लोग बड़े नादान है
उन्हें जरा भी नही ये ज्ञान है
समीर (पवन) के ये लाल (पुत्र) है
द्वापर के हनुमान है
कलयुग मे
उड़न तश्तरी नाम है।


चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: कविता, hindi, poem, क़तरा-क़तरा, yatish, yatishjain, life, ज़िंदगी, sameerlal, उडन-तश्तरी, udantashtari, व्यंग्य,

03 September 2007

दुहाई

एक दिन गमले मे अन्कुर फूटा
एक दिन माली उससे रुठा
क्यो...
रोज़ मिला उसे सूरज पानी
की शुरु उसने फिर जडे फैलानी
पहले नन्हा पौधा बना
असमन्जसता मे फिर वह तना,
शाख और पत्ते हुये घने
गमले मे पैर अब ना बने
उसका उसपे कोई जोर ना था
प्रक्रिती का नियम भी यही था

उसको जो थी जगह चाहिये
माली ने उसे नही दिलाई
गमले वाले पौधो की उसने
क्यारी मे थी लाइन लगाई

गमले मे फिर फूल खिले
फल आये और शाख झुके

माली ने फलो को बेचा
और क्यारी के फूलो को सीचा
माली ने फिर भी कुछ ना सोचा
गमले की चटकन को किया अनदेखा

वक्त ने अपना खेला खेला
गमले से जडो को बाहर ढकेला
उसने अपनी खुद जगह बनाई
सब लोगो को दी फिर छाई

अब माली की सुनो दुहाई
जो पाले उसी का कर दो नाश

02 September 2007

अंकुर

माँ ने बचपन में
एक छोटी सी डायरी दी थी
जब मैं पाँचवी मे था,
स्कूल का पहला टूर था,
कहा था
इसमे लिखना
जो भी तुम देखो.

कुछ बिखरे हुए शब्दों में
टूटी हुई लाइने दर्ज़ हुई थी,
उस छोटी सी डायरी में.
वक़्त के साथ वो लाइने
संभल गयी है,
ज़िम्मेदार हो गयी है.

उसी प्रथा को आगे बढ़ाते
एक पन्ना
मैंने भी दिया
आगे की पीढी को.

आज कुछ पका है उसपे
बहुत अच्छा रंग आया है
बहुत अच्छी खुशबू है और
जायका भी अच्छा है.

आज पहला अंकुर फूटा है
दुआ करता हूँ
कुछ और भी खिलेगा
वक़्त की साखों पे
क़तरा-क़तरा
http://gunish.blogspot.com

01 September 2007

come-ant कम-आन्ट

प्रोत्साहन ही
लिखने वाले का
ईधन होता है.
कुछ लोग कहते है
हम अपनी खुशी के लिए
लिखते है,
कोई पढे या न पढे
मैं नही मानता.

यहाँ
इन चिट्ठों पे
कुछ भी तो अपना नही है,
कुछ लोगो से लिया
कुछ अपना मिलाया
कुछ ज़िंदगी ने सिखाया
जो बिखर गया यही पे
कही लेख बनके
सिमट गयी कही पे
कविता बनके.

फिर क्यों न हम
ज्यादा में बटे
एक होके
क्यों न एक हो जाए
सब मिलके

फिर हमारी भी तुम्हारी
तुम्हारी भी हमारी

बस एक कोना अधिकार का ज़रुर हो
जिससे अपनी सी खुशबू आती रहे
फिर सब इकठ्ठा होंगे चीटियों की तरह
रोज़ होगी दावत विचारों की
और मैं
हटा दूंगा
comments की तख्ती
लिख दूंगा
come-ant
इंतजार नही करुंगा
क़तरा-क़तरा

31 August 2007

शांती

शांती ढूढता हैं हर कोई
हर समाज, मज़हब, देश
ये सारी कायनात,
बंधे हुये हैं
स्वतंत्र नही कर पाते
अपने आप को।

हम सब बटे हुये हैं
ज़मीन के
किसी टुकडे की तरह
और ज़मीन की छाती
छलनी हैं
लकीरों से।
कोई भी लकीर हिलती हैं
तो संगीने खिच जाती हैं
आतिशबाजियां होती हैं
अशान्ती और बड़ जाती हैं।

कहाँ मिलेगी शांती
पता नही,
पता हैं तो बस इतना,
अपने आप में हैं ये,
और इसे ढूढ़ना हैं मुश्किल।

ये जितनी पास आती हैं हमारे
हम उतना दूर होते जाते हैं
रोज़ इससे
क़तरा-क़तरा

30 August 2007

कहॉ लगता हैं प्रथ्वी को ग्रहण

प्रथ्वी भी दिखती हैं आधी पूरी क्या
कहॉ लगता हैं प्रथ्वी को ग्रहण
कुछ अनकही सी...
http://ankahisi.blogspot.com/2007/08/blog-post_30.html

खाली है पोस्ट

आज कोई नही आया
आज किसी ने नही छोड़े
अपने निशाँ,
ये जो कोने मे
नीचे बैठा है जीरो
comments का,
चिडा रहा है मुझे.

मैं भी बड़ा सियाना हूँ
एक को दस गिनता हूँ
क्यों के बहुत से लोग
लिखते नही है
या उन्हें आदत नही है,
ऐसा मेरा रिसर्च है
पर इस जीरो का मैं क्या करूँ
इसमे कितने जोडू
ये हस रहा है मुझपे
कह रहा है
क्या जोड़ेगा इस जीरो मे
बेईमान आज

सब दबे पाँव निकल गए आज
खाली है पोस्ट...

29 August 2007

ग्रहण

आज चाँद फिर आधा हो गया
आज फिर
एक रिश्ते को ग्रहण लगा
जो कभी देता था शीतलता
आज किसी की छाया मे आगया.

चाँद का ग्रहण तो हट जाएगा
कुछ देर में
पर रिश्ते का ग्रहण...

पिछली बार जो लगा था
अब तक नही हटा
और कितने लगेंगे
ग्रहण रिश्तों को

अब तो
रिश्ता सा हो गया है
ग्रहण से,
रोज़ लगता है
क़तरा-क़तरा

28 August 2007

त्यौहार मनबंधन का

हर रिश्ता एक बन्धन है,
हर बन्धन एक रिश्ता है,
जो रोज़ रिसता है.

कोई कहता है कि
रिश्तों के बन्धन
कच्चे धागों कि तरह होते है
इन्हें संभालना बहुत ही मुश्किल है
ये बहुत नाजुक है.
किसी ने इसमे प्रेम बाँधा
किसी ने नफरत
और तो और
किसी ने इन दोनों के बीच
पुल बांधा,
पर वक्त की आंधी
कुछ ऎसी आयी की
ये बन्धन झूला बन गए,
बीच का फासला
खाई बन गयी.

पर हाँ एक रिश्ता है
जो खुला होकर भी
बहुत बांधता है,
वो है मन का.
धागे तो बहुत बांधे है
आओ मन बांधे,
फिर रोज़ होगा उत्सव
विश्वास का प्रेम का,
त्यौहार मनबंधन का.

26 August 2007

शब्द

ये ज़िंदगी शब्दों के कितनी अधीन है,
सब कुछ शब्द ही तो करते है
बच्चों की तोतली बोली बन
शब्दों ने ही कहा
ये है मेरा पहला रूप,
प्रेम को सबके सामने
शब्द ही लेके आए,


शब्द शबद बने किसी गुरू के
शब्द ही बने गीता
शब्द ही बनी कुरान
बाइबल मे भी शब्द ही बोलते है,

फिर एक साजिश हुयी
कुछ सफ़ेद पोशो की
और बनी शब्दों की
अलग अलग जात
शब्द रंग बदलने लगे
शब्दों से निकली नफ़रत

पर ये नफरत फैलाई किसने,
गीता और कुरान ने नही,
बाईबल ने नही,
कोई गुरू तो ऐसा नही कर सकता
फिर कौन ?

किसके शब्द है जो फैलाते है
ये जिहाद,
जिहाद का मतलब क्या है ,
क्या मासूम-बेगुनाहों को
मारना है जिहाद,
क्या मज़हब है इस शब्द का
क्या माने है इस शब्द के,
है कोई शब्द तो बताओ;
एहसान होगा
भगवन की इस धारा पे
अल्लाह की जमीन पे,
कोई तो बोलो एक शब्द

गर नही है कोई शब्द
तो आओ मिटा दे
शब्दों की दुनिया से
ये शब्द...

25 August 2007

निबंध The Eassy

विश्वास एक शब्द है जिसका प्रयोग समस्त विश्व करता है,
अक्सर यह रोज़मर्रा के जीवन में प्रयोग किया जाता है,
एस शब्द को लोग कार्य शैली मे देते और लेते है,
मूलतः यह आपसी रिश्तों जैसे-
दोस्त, कुलीग, भाई-बहन, माता-पिता और
व्यापार मे प्रयोग होता है,

इतिहास कारों का मानना है कि द्वापर युग से ही
विश्वास के दो साथी है 'पात्र' और 'घाती'
'पात्र' बहुत ही वफादार किस्म का साथी है और
'घाती' बहुत ही खुरपाती किस्म का साथी है,
देखने में दोनों एक जैसे लगते है पर अक्सर यह
पात्र की कि वेशभूषा में घूमता है
विश्वास श्रापित है यह कभी भी अकेला नही होता
इसलिए इसे लोग विश्वासपात्र और विश्वशाघात
के नाम से जानते है.
विश्वासघाती को पहचानना बहुत ही मुश्किल कार्य है
यह दैनिक जीवन मे किसी भी रिश्ते के रूप मे आ सकता है.
आजकल यह व्यापार और नौकरी के क्षेत्र मे घुल मिल गया है,
हम सब भी विश्वास के साथी है पर कौन से
इसे जानना बहुत ही आसान है.
हम अपने ख़ुद के मुआइने के आधार पर
की आप ने कब कब किस किस के साथ झूठ बोला है,
कब कब किसी दूसरे या अपनों को इस्तेमाल किया है,
इस प्रयोग से हम ख़ुद ही जान जाते है की हम कौन है
पात्र या घाती
अब विश्वास के दोस्त बन अपने आप को

साथ जोड़ दिया जाता है.
तत्पश्चात ख़ुद ब ख़ुद अपनी असली पहचान सामने आ जाती है
की हम कौन है विश्वास+पात्र या विश्वास+घाती

चिट्ठा जगत के कुछ महानुभाओं के मतानुसार जैसे
शास्त्रीजी के शब्दों मे
"सत्य के बिना होता है विश्वास
अंधा,
एवं विश्वास के बिना होता है सत्य
सिर्फ पाषाण !"
रचना जी के शब्दों मे
"विश्वास के बिना जीना व्यर्थ है.
विश्वास मे ही है विश्व की आस"
विपुल जैन जी के अनुसार
"विश्वास है तो संगी हैं, संगी हैं तो दुनिया है,
बाकी सब मिथ्या है।"
शशिकांत जी के अनुसार
"विश्वास मे ही अमृत और विष छिपा हुआ है
विश्वास मे ही श्रद्धा के फूल छिपे हुए होते है
टूटा तो विष का काम करता है !
बना रहा तो जीवन मे अमृत घोल देता है."
यतीष जी के शब्दों में
प्रमाण, साक्ष्य, सत्य के बिना विश्वास
झूठ के सिवा कुछ नही है.
बग़ैर साक्ष हम
जिए चले जाते हैं विश्वास,
विश्वास कुछ और नही
विष का वास हैं
जिसे हम रोज़इकट्ठा करते हैं
क़तरा-क़तरा ...


और कुछ लोगो के अनुसार विश्वास
वि + श्वास से बना है,
वि माने negative, श्वास माने सांस ...

23 August 2007

साक्षी

एक दिन एक विश्वास ने
अपने साथियों के साथ
आसमान की सैर की
एक सपने में।
कुछ दिन बाद
साथियों का सपना
हकीकत मै बदला
पर विश्वास
वही का वही रहा
आज भी वह
सपने में हैं
उसकी मेहनत
रंगलायी
पर दूसरो के लिए।
कारण एक था
साथियों के पास
विश्वास का
साक्ष था कि
वो संघर्ष करेगा।
पर विश्वास के पास
कोई साक्ष नही था
कि वो जो कर रहा हैं
वो उसे मिलेगा
इसलिये अर्से से
विश्वास एक भ्रम में जी रहा हैं
साक्ष सामने खड़ा हैं
मिलन नही कर रहा,
ठुकरा रहा हैं साक्षी को .

22 August 2007

विश्वास

जीवन का सबसे बडा झूठ क्या हैं,
क्या हैं जिसके आगे कुछ दिखाई नही देता,
क्या हैं जिसकी क़ैद मै हैं सत्य,
और सत्य तभी सामने आता हैं
जब टूटता हैं वह।

"विश्वास "

विश्वास सत्य नही;
सत्य हैं अनुभव,
विश्वास की सत्ता जहाँ ख़त्म होती हैं
वहां से शुरू होता हैं सत्य का अनुभव।
नई संभावनाओं के लिए विश्वास
सबसे बड़ी अड़चन हैं।

बग़ैर साक्ष हम
जिए चले जाते हैं विश्वास,
विश्वास कुछ और नही
विष का वास हैं
जिसे हम रोज़
इकट्ठा करते हैं
क़तरा-क़तरा ...

21 August 2007

ईमेल

एक ईमेल ने कहा कि
मै हीं हूँ तुम्हरी कविता में
पुरानी यादों मे;
कुछ अच्छी यादों मे,
मै वहां हूँ।
चाहे स्म्रति दुखद हो
पर मै हूँ तुम्हारे साथ;
तुम्हारी कविता में ।
अपने आप को पा के
बहुत अच्छा लगता है।
भले ही कोई
न समझे कि तुम
किसके बारे मे लिख रहे हो,
इससे मै अच्छा मेहसूस करता हू,
अपना खयाल रखना
ई मेल का जबाव
ई मेल से देना।

आज मै
जिस मेल में बैठा हू
वो रेल है जिंदगी की
जिसमे रोज़ लोग चड़ते है
और उतर जाते है
अगले स्टेसन पे।
स्म्रतियाँ साथ रह जाती है,
लोग भूल जाते है
कि इस आधुनिक युग मे
आज़ हर चीज को
सामने लाया जा सकता है.

मुझे मेल लिखना नही आता
ना ही इसका शिस्टाचार,
ये जो लिखा है ये वाकये है
उस मेल के
जिसमे मै बैठा हूँ
और रोज़ करता हूँ
उन यादों का सामना
क़तरा-क़तरा...

20 August 2007

पदचाप

सब को
साथ ले चलने की
कोशिश करता था,
सबके साथ चलने की
कोशिश करता था।

उम्र के इस मध्यांतर मे,
थोड़ा रुका;
तो देखा
कोई साथ नही था।

आज अकेला चला;
अकेला ही जान कर
अपने आप को।
पर ये क्या हुआ
ना कोई साया था
ना थी कोई पदचाप...

18 August 2007

केचुली


नागपंचमी हैं,
आज के दिन
साँप को
दूध पिलाया जाता हैं,
सपेरों को
पुराने कपड़े आदी
दान किये जाते हैं,
एसा देखा था बचपन में,
पर आज
सुबह से से इंतजार हैं
कोई सपेरा नही आया।

सपोलो का शहर हैं ये
शायद
यहाँ लोग
कपड़े नही
केचुली बदलते हैं...

16 August 2007

इन डिपेन्डेन्ट डे

चाँदनी चौक से
बरेली का मांझा और
पतंग मगाई थी,
सोचा था
शाम तक घर
पहुच ही जाऊंगा।

मेरे से कभी
पतंग नही उड़ी।
पतंग हवा के
रुख के साथ
उड़ती हैं
और मैंने कभी
इसके रुख के साथ
रुख नही मिलाया
अलग ही चला।

सोचा था
आज
हवा के साथ उडूगा,
पर ये ना हो सका ।
आज सारे दिन
ख़बरों पे झंडा फहराया,
आज के दिन
बाक़ी दिनों से ज्यादा
काम आया।
जब दफ्तर से निकला
तो अँधेरा छा चुका था,
15 अगस्त का सूरज
मुझसे बिना मिले
जा चुका था।

14 August 2007

मेरी कविता

किसी ने कहा
बहुत बुरा लिखते हो
मुझे अच्छा नही लगता
सब रबिश हैं।

मेने कहा
क्या करूं
कुछ और हैं ही नही
इसके सिवा,
सारे लोग
नाता तोड़ गए।
मुझे भी तो चाहिऐ
कोई अपना सा,
जिससे में
ख़ुशी बाटू,
लडू ,
नाराज़ हो जाऊ,
मना लू उसे
और जरुरत पडे तो
रख सकू सर
उसके काँधे पे।

हैं एक रिश्ता
मेरे पास
इसे मत छीनो
मुझसे
वो हैं
मेरी कविता

13 August 2007

नुमाइश
















यदा
-कदा लोग
पूछते हैं मुझसे
अरे वो कहॉ हैं
आज कल
जो रहता था
साथ तुम्हारे?

अतीत का पन्ना था
किसी ने फाड़ कर
जहाज बना
उड़ा दिया.
कल दिन भर
धूड़ा उसे
नही मिला,
शरहद पार गया
लौटा नही शायद।

आज
एक नुमाइश में
देखा था,
किसी का चेहरा
हू-बहू
वही था
पर
वह नही था...

12 August 2007

निशब्द

आज मै अकेला मिला
अपने आप से
मुद्दतो बाद,
कोई नही था
बस मेरी पुरानी
चीजें थी साथ,
जिन्हें मै रोज़
नज़रान्दाज़
करता था।
रौशनदान से झांकती
कोमल धूप,
वो कूलर नहीं था आज
जो जोर-जोर से
खर्राटे लेता था
खुदा को प्यारा हो गया
उसका पोता AC हैं आज,
TV पर आज मैंने
पावंदी लगादी थी
और बैठ गया
शांत कमरे में
एक एक कर
अलारी में सजी
अपनी अमानतों को
देखने लगा।
खड़ी किताबों के ऊपर
शब्दों के पोरुओ को
महसूस करने लगा
कि एक-एक कर
सब बोलने लगी
और मुझे
खीच ले गयी
अपनी ही दुनिया में
जहाँ ना कोई
बनावट थी,
ना कोई सजावट,
सब कच्चे-कच्चे
एहसासों की ज़मीन थी
जहाँ बहुत कुछ पक रहा था,
मै खड़ा था वहां स्तब्ध
बिल्कुल निशब्द...

11 August 2007

खोमचा






















सरहाने
अपने
खोमचा किताबों का
सजा लिया हैं हमने,
पहले
वक़्त ही नही मिलता था
अलमारी तक जाने का,
उनका हालचाल जानने का।
इस तंग जिन्दगी में
मसरूफ होकर भी
तन्हा हो गए हैं,
इसलिये
हाथ भर की दूरी पर
बुला लिया हैं उनको।
अब दुआ की तरह
पढता हूँ,
दवा की तरह
लिखता हूँ रोज़
क़तरा-क़तरा...

08 August 2007

रसोई प्रेम की

सुना था
टैगोर के गीतों से
प्रेम झलकता था,
अभी कुछ दिन हुये
दूरदर्शन पे सूना भी,
गीत तो आज भी
वही हैं,
पर सुनाने वालों के
कान बदल गए हैं,
आज कल के कौतुहल से
सुर
अन्दर नही जा पाते।
और फिर
री-मिक्स का जमाना
जो आ गया हैं।

पाश्च्यत संगीत का मिश्रण
हमारे प्रेम संगीत में
कुछ एसा मिला
कि टैगौर की
टै हो गयी.
संगीत का तो पता नही,
सुरों में संगीन
खीच आयी हैं।
भावनायें नावों में
पलायन करगयी हैं,
शब्दों में प्यार नही
प्याज कटता हैं।

यही हैं आज
रसोई प्रेम की
जो अब रोज़ पकती हैं
क़तरा-क़तरा...

07 August 2007

बहाने वही पुराने...

कभी रिश्ते एसे हो जायेगे
जैसे किसी इमेल मे आयी हुई बेकार मेल
जो रोज आती है और अपने आप ही
चली जाती है जन्कमेल मे,
या अंगुलियां एक दम से
चली जाती डिलीट पे
सोचा नही था।

कभी मिले तो कहते थे
अमा याद भी करलिया करो,
अब याद करते है
तो कहते है तुम बिजी होगे
इसलिये तुमसे सम्पर्क नही किया,

कितने समझदार होते है ये
कहने वाले,
बिन कहे ही मेनेज करते हैं
अपनो का वक़्त,

इस तेज रफतार जिन्दगी मे
जहा फ्री टाकटइम वाले मोबाइल है
वीडियो टाक है,
ईमेल है
और नजाने कितने साधन
मेल मिलाप के,
विज्ञान ने अब
मीलो का फ़ासला
एक क्लिक की दूरी तक
सीमित कर दिया है.
पर
बहाने वही पुराने...

06 August 2007

हमाम में सब नंगे हैं

क्यों कीचड़ उछालते हैं
एक दूसरे पे हम,
क्या कभी देखा हैं
हमाम में सब नंगे हैं।

कृपया यहाँ ज़रुर देखें
मै भी नहा रहा हूँ वहां हमाम में ...
हों सके तो अपनी अमूल्य राय दें.

लोगों को इसकी सख्त ज़रूरत हैं

04 August 2007

पुरानी किताबें

घर में कई किताबें
अपने बिछड़ो से
मिलने को तरस रहीं थी,
कुछ दिन पहले ही
एक एनाय्क्लोपीदीया
मुझसे कह रहा था
कहॉ छोड़ आये हो
मेरा एक हिस्सा,
जब तुम लाए थे मुझे
अपने घर,
तो कहा था
अगली बार
पूरा कर दूंगा तुम्हें ।
आज एक दशक से
ज्यादा हो गया।

कल किसी बहाने में गया था
उन रास्तों पे,
नये ज़माने की चमक से
चमक रही थी सारी चीजें,
बसों की भीड़ अब
मेट्रो में चलती हैं,
सेंट्रल पार्क को चिड़ाता
एक और पार्क बन गया हैं
और वो फेरी वाले
ना जाने कहॉ गुम हो गए,
जो सजाते थे
पुरानी सोहबतें।
जो बेचते थे
पुरानी किताबें...

30 July 2007

कौन क्या कर रहा है

दो लड्के बात कर रहे थे
यार में तो इस डिटर्जेन्ट में
कपडे धोता हू,
दूसरा कहता है
अबे इसमें मत धोयाकर,
ये सफेद कपडो के लिये होता है;
रन्गीन के लिये नही.

दूसरी तरफ
दो लड़किया जा रही थी,
कल मेरी मीटिन्ग है
४ बजे,
तुम कब छूटोगी आफिस से,

किसका क्या काम है
अब ये मायने नही रखता.
रखता तो है
कौन क्या कर रहा है.

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

29 July 2007

सिग्नल

मै जब भी
उस रेड लाईट से गुज़रता हूँ
जहाँ मैंने कभी उससे कहा था
कि जब तू बड़ा आदमी हो जाएगा
एक बड़ी कार में
यहाँ से निकलेगा,
और मै इस जगह
रोड क्रोस करने के लिए
खड़ा होऊंगा
तो तू अपने ड्राइवर से बोलेगा
सिग्नल तोड़ दे
वो आ रहा हैं,
तुम हस पडे थे।

ये सिग्नल भी
कितने अजीब होते हैं दिल के,
लाख कोशिश करो
टूटते ही नहीं,
बस रंग बदलते रहते हैं...

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

28 July 2007

आहट

मै कल यू ही निकल पड़ा
अपने कदमो को छोड़
कि आहट ना हो,
सन्नाटा था...
कोई पास से भी गुज़रा मेरे,
पता भी ना चला,
शायद वही होगा
जिसे मै ढूडने चला था।
शायद वो भी
अपने कदम छोड़ आया होगा...

चिट्ठाजगत>

27 July 2007

वो रास्ते

लोग मिलते हैं बिछड़ जाते हैं
कभी किसी बात पे बिगड़ जाते हैं,
पता भी नही चलता
और सालों बाद
ऐसे आते हैं
जैसे एक अजनबी।
शायद हम कहीं मिले थे।
बरसों से
एक ही शहर में रह रहे हैं,
वो रस्ते भी तय करते रहे हैं
जहाँ कभी साथ-साथ चला करते थे।
मै जब भी उन रास्तों पे
जाता हूँ आज,
अकेला नहीं होता,
पर वो रास्ते
जब भी मुझे अकेला देखते हैं
कहते हैं,
एक बार तो साथ आओ
तुम उसके,
अकेले अच्छे नही लगते...


ईमेल

आज मेरे ईमेल की देहलीज़ पे
एक मेल ने दस्तक दीं,
किसी ने मेरे घर के नाम से पुकारा।
जैसे ही मेल में
मै आगे बड़ा,
ख़त्म हो गयी एक लाइन में।
खैरियत पूछी थी बरसों बाद मेरी,
घरवालों की।
सालों का फासला
सेकेंड में ख़त्म हो गया,
जैसे कोई बासी पोस्ट पे
कमेंट्स लिख गया।

15 July 2007

आंसू

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
खारे होते हैं,
जब दर्द आंसू बन बहता हैं
दिल को राहत देता हैं,
ये अपने-पराये
किसी के भी दर्द में
बहने लगते हैं,
हमदर्द बनके।

खारे होकर भी
कितना मीठा काम करते हैं ...

नए मौसम

जब सूखे पत्तों पे बारिश की बूंद पड़ती हैं
तो शाख से टूट जता हैं,
छोड़ अपने कल की दास्ताँ।
सावन जब फिर शाख की रूह को छूता हैं
तो शुरू होती हैं नए पत्तों की तय्यारी
ये मौसम फिर सौधी खुशबू से महक उठता हैं

कुछ इसी तरह होती हैं आंसुओ की बारिश
एक सूखे गम को बहा ले जाती हैं
और ज़िंदगी फिर ले आती हैं
एक नया ग़म
एक नए मौसम के संग ...

10 July 2007

बिंदियाँ

ये बिंदियाँ भी कितनी
कमाल की चीज़ होती हैं
हरे रंग की, लाल रंग की,
नारंगी रंग की।
जब ये बैठी होती हैं
जीमेल बॉक्स के
लेफ्ट कार्नर में
तो ताकती रहती हैं।
कुछ हरी बिंदियाँ
रोज़ आती हैं,
अपने होने का
एहसास दिलाती हैं,
नारंगी कहती हैं
मै हूँ तो पर
अभी नहीं।
लाल होते हुये भी
अपनी व्यस्थता
बताती हैं,
और कई ग्रे बिंदियाँ
सुस्त सी पड़ी रहती हैं,
कौने में
सूखे पत्तों की तरह,
बेजान रिश्तों की तरह...

08 July 2007

ताज महल

शाहजाह ने सारे जहाँ से
शान से कह दिया
कि मुहब्बत की
याद में हम
एक अजूबा बनायेंगे
मुहब्बत का जज्बा
सारी कायनात को दिखायेंगे,
हम उनकी याद में
मकबरा नहीं
महल बनायेंगे
''ताज महल''

23 June 2007

नई ID

आज कई दिनों बाद
एक ऐसे दोस्त का फ़ोन आया
जिसके साथ कई चीजें
संजोई थी,
आज वो बड़े ओहदे पे हैं,

उसने पूछा कैसे हो
कुछ पुरानी ताज़ा हुई
और उसने नए की
कुछ थाह ली मुझसे,
फिर हम कुछ दुनियादारी
बतियाने लगे,
बातों बातों में कहा
कुछ मुझे भी भेजा करो
अपना किया।

मैंने बहुत कुछ भेजा था
पता नहीं कहॉ गया,
अब मै सोच रहा हूँ,
क्या भेजूं ।

भेज पाऊंगा
मै उसे वो सब
जो बाटना चाहता था पहले।

आज उसने
नई ID दीं हैं,
कहा
पहले की ID सही नही थी।

बे-आवाज़ सन्नाटा

उसने कहा
मै तुम्हारा कुछ करके जाऊंगा,
उसने कहा
मै तुम्हें उनसे मिलाउंगा,
उसने कहा
कि कल फ़ोन आयेगा तुम्हें,
उसने कहा
मुझे तेरी ज़रूरत पड़ेगी,
उसने कहा
ये करेगा,उसने कहा
वो करेगा,

लगता हैं
एक ख्वाब था
जिसमें मै
सुन रहा था।
आवाज़ कोई नही थी,
एक बे-आवाज़ सन्नाटा था,
अनसुनी यादों का,
अधूरे वादों का...

22 June 2007

बादल


मेरा आकाश
कहीँ और चला गया,
आज किसी ने
मेरे बादलों में सैर की।

पर बादल तो
सबके होते हैं;
सबकी छत पर,
कौन पहचानता हैं इन्हें,
कौन संजोता हैं इनको।


मैंने संजोया था
एक बादल,
किसी ने सजाया हैं
उसे अपनी छत पर
आज।

शुक्रिया...

21 June 2007

शायर

कभी-कभी लोग
अपने दर्द को
दूसरे का कहके
बयाँ कर देते हैं।

दूसरे के दर्द को
अपना कह देते हैं।

बड़े बेईमान होते हैं
ये शायर...

20 June 2007

शरमा गया चाँद

कल छत पर
बिंदिया लगा
निकला था चाँद,
सोचा क़ैद कर लूँ
कैमरे में,
जैसे ही कैमरा ले
फिर गया छत पे,
शरमा गया चाँद
छुपा ली बिंदिया..

18 June 2007

पेन फ्रेंड

आज मेरी डिक्शनरी में
एक शब्द और जुड़ गया।
ये शब्द भी
कितने अजीब होते हैं,
कितने रंग दे देते हैं
रिश्तों को
अब दोस्ती को ही लो,
किसी ने आज मुझे कहा
"पेन फ्रेंड"

दो पहलू

कुछ दर्द सांझे होते हैं,
कुछ खुशियाँ सांझी होती हैं,
और ये सांझेपन ही
दो पहलू हैं
सिक्के की तरह।
एक का दर्द दूसरे मै झलकना,
एक की खुशी दूसरे मै झलकना
स्वाभाविक हैं वहां।
जैसे दो जान एक रूह
जैसे नदी के दो किनारे
आमने सामने अलग अलग...

17 June 2007

रिश्ते

कल आज पर निर्भर हैं
और बीते हुये कल पर आज,
जिन्दगी का उसूल हैं।
पर जिस रस्ते से
होता हुआ ये जाता हैं
वहां एक डोर
जिसे रिश्ते कहते हैं
बांधे रहती हैं।
हम इन्हें
सींचते तो ज़रुर हैं
पर इनका
पक्का पन-कच्चा पन
हमारे हाथ
नहीं होता।
पर इन सबके साथ
कुछ रिश्ते
ऐसे होते हैं
अद्रश्य से,
अनबंधे से
जो देते हैं जीं को सुकून,
देते हैं अपना पन।

क्यों ना हम
अपनी सोच की
उस रेखा को मिटा दें
जो खिचती हैं
हरदम मन पर,
क्यों ना हम
उन हवाओं से ही
खुश होलें
जो देती हैं
अपने होने की ठंडक।
क्या हुआ कि वो
सामने नहीं हैं,
पर हम तो हो सकते हैं
सामने उसके हरदम

कुछ खुले हुये रिश्ते
बहुत बांधते हैं मन को...

नमन

मौन जब मरजाता हैं
तो उसमें दफ्न होता हैं
एक तूफ़ान,
जो ना जाने कितने
सवाल लिए होता हैं,
या कहे जवाब लिए होता हैं
सवालों के।
ये मौन भले ही
खामोश हो,
जिंदा हो या मरा हुआ;
मौन नही होता,
अपनी भाषा में
बहुत कुछ कहता हैं
तभी तो मन
इस मौन का
हर वक़्त करता हैं
"नमन"

13 June 2007

अनदेखा

बहुत कुछ अनदेखा किया,
बहुत कुछ देखा किया,
पर ये मन
मनमानी करता हैं ,
अनदेखे को हमेशा देखता हैं,
देखे को कर देता हैं अनदेखा...

05 June 2007

एंटीवायरस


आज हर नज़र करप्ट हो गयी हैं,
इनमे वायरस आगया हैं,
इससे ना हम बचे हैं ,
ना बचेगी हमारी आने वाली पीड़ी।

काश कि ऐसा होता
कंप्यूटर के एंटी-वायरस की तरह
भगवान भी एक एंटी-नज़र,
फ़िल्टर बनाता
जिसे हम पहन लेते
बुरी नज़रों से बचने के लिए,
जो जितनी दुआ करता
उसे उतनी ही पावर का मिलता ये।

पर सुना हैं कि वायरस भी
वही बनाते हैं जो एंटी-वायरस
बनाते हैं ,
जिससे लोग उन पर विश्वास करें
और वायरस से बचने के लिए
लोग उसे खरीदें।

दुआ के लिए खुदा भी तो कहीं
ये नही कर रहा।

हाय ये क्या हुआ मुझसे,
मैंने उसपे शक किया
मै तो गया काम से ...

02 June 2007

सिलसिला जवाबों का

किसी ने एक ख़्वाब देखा,
किसी ने इसे साकार किया,
वक़्त का लम्बा दौर तय हुआ,
लोग जुड़ते गए दिन ब दिन ,
सवालों का सिलसिला शुरू हुआ
नेट पर ,
जवाबों को उन तक
पहुंचाया गया,
सिलसिलेवार फ़हरिस्त बनी,
और एक दिन
रूप लिया इसने
किताबों का
क़तरा-क़तरा...

01 June 2007

दिन-रात

दीवारों से इतने घिर गए हैं हम
कि पता ही नहीं चलता
सूरज कब आया
चांद कब गया,
आकाश की लालिमा क्या होती हैं।
बस तपती हुयी धूप को
समझा हैं हमने
दिन,
और चमचमाती बत्तियों के उजाले को
रात...

31 May 2007

इंतज़ार

एक हैं जो
आये दिन कहते है
कल आऊंगा,

अरसा हो गया पर
वो कल नहीं आया,
जिस कल में हमें
बीते दिनों का काम
पूरा करना था,

साल होने को है ....

ये साल भी कल-कल की आवाज़ मै गुज़रा।

27 May 2007

डायरी

मै किसी नई डायरी मे नहीं लिखता था
डर होता था ख़राब हो जायेगी.
फिर कॉलेज मै एक दोस्त मिला,
उसने एक डायरी दी
और मेरी चलपड़ी लिखने की।
जब तक साथ था हर साल एक डायरी देता था,
फिर नजाने क्या हुआ
हम बिछड़ गए ।

सुना है आज वो PHD हो चुका है
डॉक्टर कहलाने लगा है,
पेंटिंग मै या आर्ट हिस्ट्री मै
मुझे ये भी पता नही,
विदेश भी पढ़के आया है
और यही कही दिल्ली मै रहता है।

आज मेरी फिर चल पड़ी है लिखने की।
आज मै ब्लोग पे लिख रहा हूँ,
पर महसूस करता हूँ
ये पन्ने उसी डायरी के है ।

दोस्तो कही मिले
तो पता देना उसे मेरा,
नाम है उसका
"ऋषी"

25 May 2007

सौतन

आज रेडिओ पे सुना,
पति पत्नी और लैपटोप,

आजकल हर चीज digital है,
अब सौतन भी ।

आजादी

आजादी ढूड रहा था शब्दों मै ,
कि एक अजनबी दोस्त ने रौशनी दी ,
अपने बच्चों कि हँसी मै है आजादी ।
शुक्रिया ...
बहुत कुछ मिलगया जो मेरे पास ही था ।

बडे दिनों बाद

मै तो अब हँसने भी लगी हूँ और मजाक भी कर लेती हूँ ,
देखो मैंने चार मजाक कर लिए बातो बातो मै
क्या तुम्हें पता लगा ?
तुम्हें पता भी नही लगा ...

हाँ मुझे पता लग गया जिंदगी के मजाक का
जिसे मै सीरियसली ले रहा हूँ